पापपुण्य का जाल
गांवदेहातों से ले कर महानगरों तक के लोग तीर्थयात्रा करते हैं. वे तबीयत से लुटतेपिटते हैं और हजारों रुपए खर्च करने के बाद गंगाजल, कंठी, माला, गीता और देवीदेवताओं सहित तीर्थस्थलों के फोटो जैसी दो कौड़ी की सस्ती चीजें घर ला कर अपने पापी न होने की हीनभावना से उबरने का भ्रम भी पाल लेते हैं.
दुनिया की सब से बड़ी मूर्खता यही है कि लोग अपने कमाए पैसे का उपयोग अपने हिसाब और जरूरतों से न करें बल्कि धर्म के कहे अनुसार करें. मानव जीवन की यह सार्थकता धर्म के व्यापारियों ने गढ़ी है.
इस सार्थकता के चक्कर में कैसे लोग लुटते आ रहे हैं, इस की बेहतर मिसाल तीर्थस्थलों के पंडेपुजारी हैं जो सूर्योदय से पहले अपनी दुकान ले कर ठिकानों पर जा कर बैठते हैं और दिनभर में कुछ मंत्र, कथा पूजा कर मुक्ति के नाम पर हजारों रुपए ले कर रात को घर लौटते हैं. ऐसा चोखा धंधा शायद ही दुनिया में कहीं देखने को मिले, जिस में किसी पढ़ाईलिखाई या दूसरी योग्यताओं की जरूरत नहीं पड़ती. संस्कृत के कामचलाऊ श्लोक और जाति से ब्राह्मण होना ही काफी होता है. स्कंद पुराण में तो ब्राह्मण सेवा को ही तीर्थ के समान फल देने वाला कार्य बताया गया है.